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मुड़ के पीछे देखा तो ख़ाके सर हो चुका था On Migration - A Poem

On migration

मुड़ के पीछे देखा तो ख़ाके सर हो चुका था
आगे देखा तो सहरा ही सहरा नज़र आया।

छोड़ चले अपनी यादें हम तन्हाई में
नहीं जी पाते हैं वतन की जुदाई में।

कट गये है मेरे बाज़ू अगरचि दोनों साथ हैं
वह हमसफ़र भी रो रहा होगा बिछड़ के मेरी याद में।

मंज़र वह चिनार के अब भी याद हैं मुझे
नहीं भूलूंगा लाख कोशिश कर के तुझे।

यह कौन लूट के ले गया है खुशी उन कल्लियों से
रो रही है डाली डाली गुंचा गुंचा बाग उजड़ने पे।

किस से करें शिकायत किसने लूटा हमें
गैर नहीं अपना था जिसने खिलाया था हमें।

किस किस से जाके बयान करेगा तू     " सन्तोष "
यहां जितने भी आए सब के सब हैं बेहोश।

 

सन्तोष तिक्कू
18/11/1991

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