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शिद्दत

शिद्दत से निभाने की जब दरकार  होती है , 

मन में मुरीद और साँसों में सरगम की धुन होती है , 

मुक्कमल न सही , 

मय्यसर कर जाने की उम्मीद होती है , 

तब बागी ही बागवान ...

 

दिल की दरार को , शायद कभी मरहम लग जाती है , 

उस पत्थर को भी तासीर पड़ जाती है , 

रूह तब मंज़र को पहचान जाती है , 

शागिर्द- मुर्शिद की जोड़ी सी , 

दिल - ओ - दिमाग की बन जाती है ।

 

ऐसे ही मन के रोष का कोह .. छाँट जाती है , 

कर्णप्रिय सरगोश सा एहसास लाती है , 

एक सुभग चाहत , एक जुनूनी आहट , 

कुछ यूँ कायनात को संकेत मिल जाते हैं , 

और वो इनायत कर जाती है । 

 

सब बदस्तूर न रहता , तब्दीलें होते जाते हैं ,

मुसलसल तो बस नदियाँ ही होंगी , 

उनमें भी लहरें , सागर तक उन्हैं पहुँचा जाती हैं , 

मुकम्मल उन्हें भी , कायनात के साथ कर जाती हैं ...

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