सीधी राह सर्वस्व कठिन,
कौन निरंतर पथिक का श्रेय लेगा?
मरु की भूमि का तपिश सह कर,
तपस्या का फल लेगा ?
मन में पर, सवाल एक ही सुलगता है,
जब जीवन में है इतना कष्ट,
हरि तो फिर तू क्यूँ ये उम्र देता है?
जुग जुग जियो का वरदान, मनुष्य जब पाता है,
नैतिकता के नाम का ही वर क्यूँ ना मिल जाता है?
अमरता नहीं, शूरता का तात्पर्य होगा,
औरों के लिए तत्परता, मन में निष्ठता पर ही, यह जीवन सार्थक होगा।
मन में जो सच्चाई का बीज बोयेगा,
वाकई, तप भी उस ही का होएगा।
पर उस डगर पर यदि कोई चलता है,
मन में चैन उसे ही मिल सकता है।
बाकी रहते मृगतृष्णा में,
आगे मिलेंगे कुंड के वासी,
थकते- हारते चलते हैं,
मगर वो रैन कभी न मिल पाती।
लुत्फ जीवन का तो बस वही उठा पाता है,
जो क्षणभुङ्गर सुख से दूर, संतुष्टि के चैन को समझ पाता है।
देखा है कभी चोर के रात की नींद?
देखा है कभी किसी भ्रष्टाचारी की नींव?
देखी है कभी अन्न के बिना किसी सोने के थाल की रौनक?
क्या मतलब उनका… जब हैं सभी केवल मानक?
रत्नों की थाल में, खाने वाले कहाँ,
सेहत की इल्म में, लड़ते वो जवां...
एक मकान की चाहत में, कितने जुर्म कर जाते हैं,
फरिश्ते ही होंगे केवल जो मकान को महल बना पाते हैं।
चार रोटी की चाहत में, जाने कितने कंधो पे सालते हैं,
जिस पर दो रोटी की दावत भी सुकूँ से खा न पाते हैं।
तरक्की की आड़ में, रिश्ते बोझ उठाते हैं,
खुशनसीब ही होंगे वो, जो इस तृष्णा को जान पाते हैं...
तरक्की की आड़ में, जो परिवार को ना भूल पाते हैं।
मर्यादा की लकीर है, अति पे नियंत्रण की,
समझने की शरीर है, वक्त के बंधन की ।
क्यूंकि
लकीर के पार, भिक्षुक एक राक्षस होगा,
सोने के भेष में, छिपा एक दानव होगा।
तो बताओ,
क्या रास्ता पार करना उचित होगा?
क्या अति तरक्की की राह चलना, उचित होगा?