आजकल दुनिया की होड़ में ,
बचपन कहीं खो गया है ,
आँखों की चमक गुम हुई ,
दिल का सुकूँ सो गया है ।
खो गयी है घर की रौनक ,
धूप में दौड़ने की जगह नहीं ,
सावन में ऊँची डालों पर ,
लंबी पेंगों की बात नहीं ।
कहीं विकास की मृगतृष्णा ने ,
हमें सुस्त तो नहीं कर दिया ,
दिमाग शायद भरा ,
मगर रूह खोया तो न रह गया ?
बचपन का होता जो सुकूँ ,
कहीं खो जाता है ,
नादानी में सीखा जो पाठ ,
कहीं छुप जाता है ।
जब यादें मन में भरती हैं ,
हम बड़े हो जाते हैं ,
इन बड़े बड़ों की दुनिया में ,
शतरंज ही खेले जाते हैं ।
ऐसे न होना बड़ा ,
जहाँ अपनेपन की जगह नहीं ,
जहाँ भीगने को बारिश ,
और देखने को फलक नहीं ।
हमें तो चाहिये वही पुरानी ,
तितली , ख़रगोशों की कहानी ,
बेफ़िक्री बारिश में ,
कश्तियों की बारात सुहानी ।
गर्दिशों के जगमग सितारे ,
जो चंदा मामा के साथ लगते थे प्यारे ,
और वो दिवानों वाली दिवाली ,
जब दीपों की सजती थी लड़ी ,
और रंगों की रौनक में ,
खिलती रंगोली घड़ी - घड़ी ।
बस दर्शन करना है मुझे ,
उस अबोध सी लाली का ,
दुआ है , जीवंत रहे ,
मासूमियत वह शैशव का ।