अब कहाँ दूसरों के दुख में दुखी होने वाले
चल रे साथी आगे बढ़ें ,
नदिया करने पार ,
कश्ती सहारे तैर चलें ,
तेज़ है बहती धार ।
यह सुन सुनकर स्वजनों में हाथ बढाऊँ ,
चल रे मेरे सखा , तेरा बोझ मैं बटवाऊं ।
ऐसे स्नेहिल , सुहृदय , यदि होते सब प्राणी ,
नहीं होता जगत में कोई दम्भी अभिमानी ।
न रहती नफरत मन में किसीके ,
सब सहचर होते सुख दुख के साथी ,
दूसरों के दुख में दुखी होते ,
गलतियों पे होती सच्ची ग्लानि ।
पर क्या खोये हुए हैं हम ,
विकास के गर्दिश में ,
क्या बढ़ रहे हैं हम ,
अपने विनाश की साज़िश में ?
जो जानवरों तक , के कभी प्रेमी थे ,
जलते हैं वे , अपने कौम की तरक्की से ।
समानुभूति का एहसास , कहीं खो गया है ,
डर है मुझे,एक दूसरे पर विश्वास , लुप्त हो गया है ।
एकात्मता एकता , एकजुटता कहीं लाज़मी है ,
लालच के आवरण में , छिप गयी , मैंने जानी है ।
कहां धरती माता की , रंगीली अब चुनरी है ,
कहाँ सौंधी , खुशमिज़ाज धरती में अब नमी है ।
सभी जीव हैं बंधु बांधव , परीक्षण से भी पाया है ,
पर न जाने आज का मानव , क्यों उनके कष्ट में कठोर बना नज़र आया है ।
क्या निष्ठुरता , इंसानियत पर हावी है ?
यदि ऐसा चलता रहा , तो निश्चित ही चल रही विध्वंस की नाड़ी है ।
अब कहाँ दूसरों के दुख में दुखी होने वाले ?
अब कहाँ दूसरों के सुख में सुखी होने वाले ?
यदि प्रलय रोकना हो तो
उस सुप्त सितारे को जगाना होगा ,
चल रे साथी , हमें नदिया कर पार , संग जाना होगा।