लब खामोश उदास चेहरे
बेबसों का मंज़र।
गर्मी की तपिश
बरसात की बारिश।
बिना दीवारों के घर
मर कर जी रहे हैं।
जी कर फिर मर रहे हैं
ये शोर कैसा बरपा।
किसी का खीमा गिर पड़ा
न शिकायत किसी से।
न शिकवा किसी से
है खफा तो अपने आप से।
लाई है तकदीर इस मोड़ पर
चल पड़ा है कारवां इन्हें छोड़ कर।
इसे अगर ज़िंदगी कहें
मंज़र " सन्तोष " मौत का क्या होगा।
सन्तोष
11/07/1991
Written after seeing the plight of those living in tents at Nagrota and Muthi camps.